
पीओके पर भारत की नीति अब नए मोड़ पर है,जहाँ सवाल केवल "ज़मीन" नहीं, बल्कि "ज़मीन के लोग" हैं। क्या भारत उन्हें अपने संविधान में समाहित करेगा? पीओके की जनता का झुकाव किधर रहता है। इन सभी सवालों के उत्तर समय के गर्भ में हैं, लेकिन एक बात तय है—यह विषय अब सिर्फ़ कूटनीति की मेज़ पर नहीं, बल्कि जनसामान्य की चेतना में भी प्रवेश कर चुका है।
विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जयसवाल का हालिया बयान, जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया कि भारत केवल पाकिस्तान के अवैध कब्ज़े वाले कश्मीर (पीओके) को खाली कराना चाहता है, लेकिन वहाँ की "आवाम" को लेकर कोई स्पष्ट वचन नहीं दिया, कई स्तरों पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विमर्श को जन्म देता है। इस वक्तव्य के दो स्पष्ट अर्थ निकलते हैं—पहला, भारत की कूटनीतिक प्राथमिकता क्षेत्रीय अखंडता की बहाली है; और दूसरा, भारत पीओके के लोगों के भविष्य को लेकर सतर्क और शायद असमंजस में है।
क्या पीओके की आवाम को स्वीकार नहीं करेगा भारत?
रणधीर जयसवाल के बयान से यह संकेत ज़रूर मिलता है कि भारत, पीओके की भू-राजनीतिक वापसी को प्राथमिक मानता है, न कि वहाँ के नागरिकों के समावेशन को। यह प्रश्न इसलिए ज़रूरी हो जाता है कि क्या भारत केवल 13,297 वर्ग किलोमीटर ज़मीन को ही “अपना” मानता है, या वहाँ बसने वाले लोगों को भी भारतीय गणराज्य का समान नागरिक अधिकार देने को तैयार है?
कश्मीर को लेकर भारत का पारंपरिक रुख रहा है कि पूरा जम्मू-कश्मीर (जिसमें गिलगित-बाल्टिस्तान और मुज़फ्फराबाद तक शामिल हैं) भारत का अभिन्न अंग है। लेकिन यदि “ज़मीन वापसी” के बाद वहाँ की जनता को अपनाने की प्रतिबद्धता नहीं है, तो यह नीति की अस्पष्टता को दर्शाता है।
अंतरराष्ट्रीय कानून की स्थिति
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के 1948 के प्रस्तावों के अनुसार, जम्मू-कश्मीर को लेकर विवाद का शांतिपूर्ण समाधान चाहिए था, लेकिन उस प्रस्ताव की प्रमुख शर्त यह थी कि पाकिस्तान सबसे पहले अपने सभी सैन्य बलों को पीओके से हटाए। यह शर्त कभी पूरी नहीं हुई।
भारत 1994 में संसद द्वारा पारित सर्वसम्मत प्रस्ताव में यह स्पष्ट कर चुका है कि पीओके भारत का अभिन्न हिस्सा है और उसे मुक्त कराना एक राष्ट्रीय उद्देश्य है। अतः अंतरराष्ट्रीय कानून के आलोक में भारत का दावा वैध है, लेकिन किसी भी सैन्य कार्रवाई के बाद वहाँ की आवाम के साथ कैसा व्यवहार किया जाएगा—यह स्पष्ट नीति दस्तावेजों में अभी भी धुंधला है।
रणनीतिक और सामाजिक चुनौती
यह एक रणनीतिक और सामाजिक चुनौती होगी। अगर भारत पीओके को सैन्य या कूटनीतिक तरीक़ों से वापस लेने में सफल होता है, तो वहाँ की जनता,जो दशकों से पाकिस्तान की राजनीतिक और सांस्कृतिक व्यवस्था में जी रही है—को भारतीय संविधान के तहत समाहित करना न केवल प्रशासनिक, बल्कि वैचारिक कार्य होगा।
वहाँ की भाषाएँ, शिक्षा, प्रशासनिक संरचनाएं, और धार्मिक-सामाजिक पहचानें अलग हो चुकी हैं। इस परिस्थिति में भारत को निर्णय लेना होगा—क्या वहाँ की जनता को समान अधिकार देंगे, उन्हें भारतीय लोकतंत्र में भागीदार बनाएंगे, या केवल क्षेत्रीय नियंत्रण तक ही सीमित रहेंगे?
क्या पाकिस्तान बोलेगा"कबूल" है
यह सवाल दो स्तरों पर महत्त्वपूर्ण है। पहला, क्या पाकिस्तान अपनी ही जनता को भारत के नियंत्रण में जाने देगा? और दूसरा, क्या पीओके की जनता स्वयं भारत को स्वीकार करेगी?
पाकिस्तान की रणनीति सदैव “कश्मीर बनाम ज़मीन” की रही है—जहां वह भूमि की तुलना में जनसमूह की भावनाओं को प्राथमिकता का मुखौटा पहनाता रहा है। लेकिन इतिहास गवाह है कि पाकिस्तान ने पीओके में ना लोकतंत्र को फलने-फूलने दिया, ना ही जनमत संग्रह जैसा कोई प्रयास किया। ऐसे में अगर भारत ज़मीन कब्जे में लेता है, तो पाकिस्तान के पास नैतिक या संवैधानिक आधार नहीं बचता कि वह वहाँ की जनता को रोके या उनकी स्वतंत्र इच्छा को दबा सके।